अपनी बात

घर जलते समय चुप रहना उचित नहीं है। देश की एकता की बात जब कभी याद आती है तब संपूर्ण देश को एक तार में पिरोने की योग्यता रखने वाली हिंदी को पदच्युत करके गुलामी का संकेत अंग्रेजी को स्थान देने वाली बात दिल पर सुई-सी चुभती है। हम हिंदी-भाषियों में अधिकांश जनों की धारणा यही है कि हिंदी यदि अभी तक राष्ट्रभाषा नहीं हो पाई तो इसका मुख्य कारण अहिंदी भाषियों का अंग्रेजी-प्रेम अथवा हिंदी-विरोध है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में इस विषय पर जो लेख निकलते हैं उनसे यह प्रकट नहीं होता कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सर्वाधिक उत्तरदायित्व हमारा है, और हम अपने इस दायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। हमारे देश में एक पूरा वर्ग है, जो राष्ट्रभाषा के पद पर अंग्रेजी को प्रतिष्ठित रखना चाहता है। यह वर्ग किसी प्रदेश/क्षेत्र विशेष से सीमित नहीं है, अपितु सारे देश में फैला हुआ है। अमरबेल की तरह यह विशाल हिंदी-क्षेत्र में भी फैला है। आये दिन अपने प्रदेश के पढ़े-लिखे लोगों के व्यवहार में हम अंग्रेजी का यह महत्व देख सकते हैं। हिंदी-भाषी क्षेत्र में इस वर्ग के लोग उतने मुखर नहीं है, जितने उनके सहयोगी अन्य प्रदेशों में हैं। फिर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सभी प्रदेशों के अंग्रेजी-प्रेमी एक दूसरे की सहायता करते हैं। हमारा मानना है कि संपूर्ण देश में फैले हिंदी-प्रेमी मिथ्या जातीय अहंकार तजकर हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करने का दायित्व सहर्ष स्वीकार करें।
        किसी भी बोली या भाषा का उद्भव अचानक से नहीं हो जाता, इसकी उत्पत्ति और विकास में युगों की विचारधाराएँ सिमटी रहती हैं। बोली या भाषा पहले लोकभाषा का स्थान लेती है, तत्पश्चात धीरे-धीरे साहित्यिक भाषा का स्थान ग्रहण करने लगती है। युगों पूर्व हमारे समाज में वैदिक संस्कृत आर्यों की मान्य भाषा थी, जो साहित्यिक भाषा के रूप में ऋग्वेद में सुरक्षित है। इसका दूसरा रूप लोकभाषा के रूप में अर्द्धशिक्षित तथा अशिक्षित समुदाय में व्यवहृत होता था, जिसका नाम लोक ने संस्कृत रखा। समय के साथ ‘वैदिक संस्कृत’ का स्थान ‘संस्कृत’ ने लेना प्रारंभ कर दिया, और धीरे-धीरे ‘वैदिक संस्कृत’ विलुप्त होती चली गयी। ‘संस्कृत’ भाषा में जनसमुदाय के लिए अति दुर्बोध शब्दों के प्रयोग के कारण देशज शब्दों का परिपूर्ण कोश लेकर एक नई भाषा ने अस्तित्व ग्रहण किया, जिसे ‘प्राकृत भाषा’ की संज्ञा मिली। इसी प्राचीन प्राकृत को ‘पालि’ कहा गया। सम्राट अशोक को इसी पालि-भाषा में, जो पहले जनभाषा थी, अपने उपदेश देने पड़े। पालि-भाषा में जब व्याकरण का समावेश हुआ, वह साहित्यिक भाषा का स्वरूप ग्रहण करने लगी और लोकभाषा के रूप में ‘प्राकृत’ अपना विस्तार करने लगी। इस समय प्रादेशिकता के अनुसार पैशाची, शौरसेनी, अर्द्धमागधी आदि अनेक प्राकृत-भाषाओं का उद्भव हुआ। जब प्राकृत-भाषाओं को व्याकरण के नियमों से स्थिर करने की चेष्टा हुई, तब ‘अपभ्रंशों’ का उद्भव हुआ। क्रमशः परिनिष्ठित अपभ्रंशों में साहित्य रचा जाने लगा, तत्पश्चात हिंदी के उद्भव और विकास की राह सुगम हो गयी। 
        वर्तमान समय में हिंदी ने जो स्वरूप ग्रहण कर रखा है, उसे ग्रहण करने से पूर्व उसे अनेक दुर्गम पड़ावों को पार करना पड़ा है। विविधताओं से परिपूर्ण विशाल जनसंख्या वाले भारत देश  में स्वयं को स्थापित करने के लिए हिंदी को अनेकों विरोधों-अंतर्विरोधों का सामना करना पड़ा। अहिंदीभाषियों से अधिक हिंदीभाषियों ने ‘हिंदी’ के अस्तित्व और महत्व पर प्रश्नचिह्न लगाने का असफल प्रयास किया। इसी तरह अपनी पंद्रह वर्षों की साहित्यिक-यात्रा में ‘मधुराक्षर’ को भी अनेक दुरूह परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद ‘मधुराक्षर’ कभी समय से, तो कभी विलंब से आपके सामने प्रस्तुत हुई है। आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि आप सभी का सहयोग और स्नेह मिलता रहेगा!

-बृजेंद्र अग्निहोत्री