दूसरी दुनिया

एक दूसरी दुनिया 

चलती है मेरे साथ

शायद, सबके साथ चलती हो!

मुझे मालूम नहीं,

इसीलिए मैं समझता हूँ

स्वयं को औरों से विशिष्ट! 


कुछ लोग इसे दंभ भी कह सकते हैं

लेकिन, 

स्वयं को विशिष्ट समझने से 

मुझे मिलती है एक ऐसी दृष्टि 

जो मुझे जीवन के सही मायने दिखाती है! 


एकाधिक दुनियाओं में 

संतुलन बनाए रखना 

आसान नहीं है!

दोनों जहानों में तारतम्यता बनाने में 

नहीं मिलता समय 

इस नश्वर संसार से 

आसक्ति स्थापित करने  का!


कभी लगता है,

क्या कोई शाप भुगतने आया हूँ

इस स्वार्थी दुनिया में!

या फिर, 

सीखने इस दुनिया के तौर-तरीके! 


मैं यहाँ हूँ भी या नहीं 

यह भी संशय का प्रश्न है 

‘विदेह’ सा जीवन ही तो जी रहा हूँ मैं!


मन में कौंधता है, एक प्रश्न यह भी 

कि मेरी दुनिया कौन सी है 

यह, जिसमें मेरा शरीर है 

या वह, जिसमें मेरा अंतर्मन विचरता है 

रात-दिन!


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