आज तुम्हारे बिना एक साल, दो महीने, तीन दिन और नौ घंटे बीत चुके हैं... पर समय जैसे रुका हुआ है। हर क्षण तुम्हारी उपस्थिति का एहसास कराता है, जैसे अभी भी सब कुछ वैसा ही है- अपूर्ण, अधूरा, मगर जीवंत। रात के दस बजे थे, जब तुम्हारा पार्थिव शरीर घर लाया गया था। तुम्हें एक ठंडे कपाट में लिटाया गया। मैं बस देखता रहा, ऐसा लग रहा था जैसे वक्त थम गया हो। तुम... ऐसी तो नहीं थी। कितनी सुंदर, कितनी भली, कितनी जिंदादिल थी तुम। तुम्हारी काया, तुम्हारी ऊँचाई, सब कुछ इतना परिपूर्ण था कि तुम्हें देख-देखकर मेरा मन हर बार प्रसन्न हो जाता था। मगर उस दिन... तुम्हारा चेहरा ऐसा हो गया था कि पहचानना मुश्किल हो रहा था- फूला हुआ, विकृत, जैसे तुम्हारी आत्मा उस शरीर को छोड़कर कहीं दूर निकल गई हो। मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं पाया। दिल एकाएक टूटकर बिखर गया था। सिर्फ तुम्हारे जाने का ही गम नहीं था, बल्कि तुम्हारे इस रूप को देखने का दुख भी उतना ही गहरा था। मैं बस यही सोचता रहा- ‘अब क्या होगा? कैसे जिऊँगा तुम्हारे बिना?’
तुम मेरी आदत बन चुकी थी, मेरा हिस्सा। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिंदगी की राह पर तुम्हारे बिना चलना पड़ेगा। तुम्हारे बिना मैं अधूरा हो जाऊँगा- ऐसा तो कभी नहीं सोचा था। हमारे झगड़े, तकरार, नोंकझोंक- सबकी डोर अंततः तुम्हीं तक आकर सुलझ जाती थी। हर बार यही चाहा कि तुम अस्पताल से ठीक होकर वापस आ जाओ, मेरी वही पार्वती बनकर, जो मेरी दुनिया थी। मगर नहीं, तुमने सब कुछ छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन मैं... मैं आज भी तुम्हें अपने में समेटे हुए हूँ। तुमसे ही उलझा हुआ हूँ, वहीं अटका हूँ- जहाँ तुम मुझे छोड़कर गई थी।
आज, सिर्फ आज नहीं, कई बार तुम्हारा एहसास हुआ है मुझे। कभी लगा किसी ने तकिया हिलाया, कभी पाँव को किसी ने छुआ। एक बार तो ऐसा भी महसूस हुआ जैसे तुम आकर बिस्तर पर बैठ गई हो, फिर अचानक किसी के चलने की पदचाप सुनाई दी। दवा लेते वक्त भी लगा जैसे किसी ने मुझे हल्का सा धक्का दिया हो। मैंने झुँझलाकर कहा, ‘क्यों कर रही हो ऐसा? बैठ जाओ ठीक से!’ पर जब होश आया, तो देखा- कुछ नहीं था। पर मन... मन बेचैन हो उठा। तभी लगा, तुम हो... कहीं आस-पास ही।
रात के साढ़े ग्यारह बजे, जब मैं लाइट बंद कर लेटा था, टी.वी. चल रहा था। अचानक लगा जैसे कोई मेरे सामने से गुजरा और बिस्तर पर बैठ गया। डर नहीं लगा, बल्कि सुकून हुआ, जैसे तुम पास आई हो। मैंने कहा भी, ‘अब इस लुकाछिपी का खेल क्यों? दिख भी जाओ ना।’ और जैसे ही कहा- मुझे लगा तुम मुस्कराई। मुझे भी हँसी आ गई... न जाने क्यों!
क्या यह तिलिस्म है? या मेरा भ्रम? तुम सच में हो या मैं ही तुम्हारा वहम पाल रहा हूँ? पर यह वहम नहीं हो सकता... तुम हो, यही सच्चाई है।
एक महीना पहले भी ऐसा ही हुआ था। रोज नहीं, पर जब भी होता है, बहुत गहरा होता है। तुम्हारा एहसास हर पल रहता है, मगर इस तरह का स्पर्श, यह आभास- यह कभी-कभी ही होता है। काश रोज होता... मगर जब होता है, तो बेचैन कर देता है क्योंकि तुम दिखाई नहीं देती। तब उलझन होती है... कहो तो, मैं क्या करूँ?
कहती हो- ‘जो होता है, होने दो... इसी बहाने मिल तो लेते हैं।’ मगर मेरी इच्छा तुम्हें देखने की होती है... तीव्र, गहरी... शायद उसी की कमी खलती है।
कभी-कभी तो तुम दार्शनिक हो जाती हो, कहती हो- ‘जैसे चल रहा है, चलने दो। कुछ हमारे हाथ में थोड़े ही है।’ और फिर मैं बच्चा बन जाता हूँ। तुम्हारे साथ रहकर मैं हमेशा बच्चा बन जाया करता था... मेरी माँ!
याद है, तुम्हारी बीमारी में कैसे मैंने तुम्हें बच्चे की तरह सँभाला था? जब बिस्तर गीला हो जाता, मैं गुस्सा करता- बिलकुल वैसे जैसे किसी मासूम को डाँटता। और तुम भी उसी मासूमियत से कहती- ‘गुड्डी के पापा, गुस्सा क्यों करते हो? जानबूझकर थोड़े ही किया!’ अब भी जब यह सब याद करता हूँ, आँखें भीग जाती हैं। तुम मुझे मझधार में छोड़कर चली गई... मेरी जिंदगी खाली हो गई।
कभी-कभी सोचता हूँ- पुनर्जन्म होता है क्या? अगर होता है, तो तुम क्यों आज भी मेरे पास हो? क्यों बार-बार तुम्हारा एहसास होता है? क्यों मुझे लगता है कि तुम यहीं कहीं हो?
‘नहीं!’ तुम कहती हो- ‘अब तक पुनर्जन्म नहीं हुआ मेरा। बस तुम्हारे पास हूँ, तुम्हारे इर्द-गिर्द। तुम आ जाओ, फिर साथ-साथ वापस चलेंगे!’
क्या यह संभव है? नहीं जानता। पर तमन्ना तो यही है।
अभी तो बस यही है- तुम नहीं हो, फिर भी हो। मेरे आसपास, मेरे भीतर, मेरी साँसों में, मेरी सोच में... हर उस पल में, जो कभी तुम्हारे साथ बीता था। मैं नहीं जानता आगे क्या होगा। मगर जब तक ये साँसें हैं, तुम मुझमें रहोगी। और एक दिन, जब मैं भी इस देह से मुक्त हो जाऊँगा, शायद फिर से कहीं... किसी कोने में... तुम्हारे साथ बैठकर बात कर सकूँगा- यूँ ही देर रात तक, जैसे आज कर रहा हूँ।
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